मैंने सबसे पहले संसदीय सचिव नामकी चिड़िया का नाम संभवत: हरियाणा में सुना था, जब करीब दस साल पहले मैं दूरदर्शन में वहां नौकर लगा था. हम बिहार के लोग भ्रष्टाचार और बांटकर खाने का ये तरीका नहीं जानते थे. हमारे यहां विधायकों को सीधे बोर्ड, कमीशन का चेयरमैन या किसी कमेटी का मेम्बर बना दिया जाता था. उनके बच्चे मेडिकल में जगह पा जाते या साले-साढ़ू बड़ी ठेकेदारी हासिल कर लेते थे. मेरे यहां जगन्नाथ मिश्र का राज था तो कहते हैं कि एक पूरा का पूरा कोसी प्रोजेक्ट ही उनके परिवार के लिए लगभग आरक्षित था. वो प्रोजेक्ट पचास के दशक के आखिर में शुरू हुआ था, अभी तक पूरा नहीं हुआ.
दुनिया में इससे लंबा सिर्फ इंग्लैंड-फ्रांस का सौ-साला युद्ध चला था. खैर, दिल्ली में अभिनव धर्मराज केजरीवाल महोदय आए तो पहले कहा कि बड़ा सा आवास नहीं लेंगे, फिर कहा कि सादगी से रहेंगे तो वेतन बढ़ा लिया और अब संसदीय सचिव. कितना प्यारा शब्द है. केजरीवाल चाहें तो दिल्ली सरकार में ही पचीसियों बोर्ड होंगे जिसमें विधायकों को ‘सेट’ कर सकते हैं, लेकिन वे जानते हैं कि विधायक जी वहां जाते ही अपने साले को मुख्य सलाहकार लगवा देंगे और वहां पर टॉयलेट बनाने का ठेका भी पार्टी प्रवक्ता का कोई पूर्व मातहत ले लेगा. ये केजरीवाल अच्छी तरह जानते हैं. इसीलिए संसदीय सचिव नामका चुग्गा फेंका जा रहा है कि कुछ सुविधाएं और भत्ते लेकर शांत रहो और अपनी उफान मारती जवान उम्मीदों को काबू में रखो. जिस बात के लिए वे अन्य पार्टियों को पानी पीकर कोसते हैं, वो मोरल ग्रैंडस्टैंडिग फिर हवा हो जाएगी.
असली दिक्कत यहीं है. इस संसदीय लोकतंत्र में चुनाव लड़ने के लिए पैसा चाहिए होता है और राजनीति में लोग पद के साथ-साथ पैसा कमाने के लिए भी आते हैं. समय के साथ-साथ केजरीवाल सब सीख जाएंगे या उन्हें सिखा दिया जाएगा. दिक्कत ये है कि IIT का ये इंजीनियर व्यवहार तो कांग्रेस-बीजेपी के वकील नेताओं सा कर रहा है, लेकिन स्वीकार नहीं करना चाहता.